जुस्तजू भाग --- 16
"
जिंदगी हंसने गाने के लिए है पल दो पल।""रो के हंसना यहां, हंस के रोना यहां..."
(बहुत पहले रेडियो पर सुनी किसी फिल्मी गीत की पंक्तियां)
आरूषि अनुपम के बंगले पर शिफ्ट हो गई थी। अनुपम को भी अपने सीनियर्स के साथ काम करने पर उनके अनुभव और राज्य प्रशासन की गूढता से परिचय हो रहा था। पर जो लाभ हुआ कि जिम्मेदारियां बंट जाने से काम का बोझ घट गया। अब उसे रातों तक रुककर काम करने की कम ही जरूरत पड़ती थी। वहीं आरूषि की चिंता से मां को मुक्ति मिल गई थी। आरूषि अपने फाइनल सेमेस्टर की तैयारी में जी जान से जुटी थी। अपनी प्रसिद्धि और प्रोफेसर्स की आकांक्षाएं ने उस पर मेहनत करने का प्रेशर बढ़ा दिया था।
सौम्या अपनी प्रीपीजी की तैयारी के लिए लखनऊ छुट्टियों पर रह रही थी। कल रात वह इसी के लिए आरूषि की मदद पाने के लिए उसके पास ही रुक गई थी। अनुपम अलसुबह गृह सचिव के बुलावे पर उनके घर चला गया। थोड़ी देर बाद ही आरूषि को भी हॉस्पिटल इमरजेंसी में जाना पड़ा। सौम्या अकेली वहीं थी क्योंकि आरूषि अपनी व्यस्तता के चलते उसे पूरी मदद नहीं कर पाई थी इसलिए उसने उसे अपने पास ही रोक लिया था।
दोनों के जाने के बाद ही बंगले पर घंटी बजी। प्यून ने सौम्या को एक पर्ची लाकर दी।
"ये साहब मिलने आए हैं मैडम से। मैंने उन्हे मैडम के जाने के बारे में बता दिया था पर ये बोले हैं कि जो भी घर में हो, मिला दीजिए। इन्हें मैडम को थैंक्यू कहना है।"वो बोला।
"शिवेंद्र प्रताप सिंह चुंडावत, प्रशिक्षु आईपीएस" पढ़ने के बाद सौम्या ने कहा, "चलो देखते हैं।"अंदर एक लंबा पुलिस वर्दी में सजीला नौजवान बैठा था।
"जी कहिए"
"नमस्कार मैडम, मुझे डॉक्टर साहिबा से मिलना था पर मेरा भाग्य कि वे मेरे आने से पहले चली गई। उन्हें मेरी जान बचाने के लिए धन्यवाद देना था।"
"ओह !! आप हैं जिनका ऑपरेशन पिछले दिनों दी ने किया था।"सौम्या ने न्यूज में वह चेहरा देखा था। उसे याद आ गया।
"जी, पर डॉक्टर साहिबा आपके क्या लगते हैं ?"
"वे मेरी बहिन हैं।"सौम्या को यह प्रश्न बुरा लगा पर उसने जवाब देना उचित समझा।
"पर मां सा ने तो बताया था कि जीजी सा अकेली बेटी है बुआ सा की !!"वह अपने में बुदबुदाया,"क्षमा कीजिएगा, पर जीजी सा तो एकलौती है।"
"जीजी सा ? अब ये कौन है जो दी को अनोखे संबोधन से बुलाकर निकटता जता रहा है ?" वह आश्चर्य में थी उसके लिए यह संबोधन अनोखा था।"देखिए, दी इमरजेंसी में हॉस्पिटल गई हैं। मैं आपका धन्यवाद उनको आने पर दे दूंगी। आप चाय पी के जाइएगा। श्याम जी इन्हें चाय पिलाइए।"उसने प्यून को चाय के लिए बोला।
"जी मेहरबानी। पर मैं चाय नहीं पीता। मैं राजस्थान के मेवाड़ रीजन से बिलॉन्ग करता हूं और बड़ी बहिन को हमारे यहां इस तरह ही बुलाते हैं। मैं उनका ममेरा भाई हूं।"
"पर दी के ऐसे किसी रिश्ते को मैं नहीं जानती।"
"आप ठीक कह रही हैं। रिश्तों में परेशानी के चलते हम काफी समय से नहीं मिले पर न्यूज में देखकर मेरी मां ने बताया। मैं चलता हूं, कृपया उन्हें बता दीजियेगा।"वह विनम्रता पूर्वक कहकर रवाना हो गया।
"दी कितना कम बताती हैं ! अब उनके आने पर कैसे सारी बात समझाऊंगी ? चलो अभी पढ़ाई की जाए।"वह अपना सर झटककर पढ़ाई में लग गई।
आरूषि जल्दी ही लौट आई। उसे सौम्या की चिंता थी। वह उसकी ज़िम्मेदारी थी।
"दी आपसे मिलने आपके भाई आए थे।" सौम्या ने आते ही कहा।
"भाई !! कौनसे भाई !! "
"दी जिनका ऑपरेशन किया था, वो डीएसपी अपने को आपका ममेरा भाई बता रहा था।"
" नाम क्या था ?"
"शिवेंद्र सिंह चुंडावत। राजस्थान के मेवाड़ से बताया था।"
"ओह !! " वह समझ गई थी। मौसाजी की स्वार्थ पूर्ति और दीदी के धोखे ने ननिहाल से उसके रिश्ते बिगाड दिए थे। वह जल्दी ही परेशान होने लगी। तनाव उसके लिए खतरनाक था। अनुपम ने सौम्या को उसके बारे में बता रखा था। सौम्या समझ गई उसने अनुपम को फ़ोन लगा दिया। अनुपम ने तुरंत लौटने का निश्चय किया। तब तक उसे आरूषि का ध्यान किसी और जगह लगाने को समझाया।
अनुपम ने आते ही आरूषि को संभाला। आरूषि भी संभल चुकी थी। अनुपम ने प्रिंसिपल से बात करके उसके लिए छुट्टियां मांगी। प्रिंसिपल ने आरूषि का ईलाज कर रहे डॉक्टर से भी बात की। वे अनुपम के अनुरोध के अनुसार आरूषि का ईलाज उसे बिना कुछ बताए करवा रहे थे। उन्होंने कोई खतरा नहीं होने और आरूषि की मानसिक मजबूती के बारे में बताया।
अनुपम फिर भी कोई रिस्क नहीं लेना चाहता था। उसने आरूषि को मां की इच्छा याद दिलाई। आरूषि भी उदयपुर जाने के लिए तैयार हो गई। आखिर उसे भी अपने बेटे से मिले काफ़ी समय हो गया था। अनुपम और आरूषि को 4 दिन की छुट्टियां स्वीकृत हो गई थी। सौम्या भी अपने घर लौट गई थी।
दूसरे दिन ही फ्लाइट से सभी उदयपुर पहुंच गए। मम्मीजी ने सबकी व्यवस्था होटल में करवा रखी थी। ससुराल और पीहर से उनके रिश्ते कभी ठीक नहीं रहे थे। वे बस अपने पति की ईच्छा का मान रखना चाहती थी। आरूषि का भी अपने ननिहाल से ऐसे ही रिश्ते थे। तभी उसने उदयपुर आना टाल रखा था। मम्मीजी ने अपने ससुराल की मान्यतानुसार एकलिंग जी के मंदिर में सारी व्यवस्था करवा दी थी।
आरूषि अपने बेटे से मिलते ही बेहद भावुक हो गई। आखिर वह पांच वर्ष का हो चला था। अब उसकी बातें साफ हो गई थी। मम्मीजी ने उसका एडमिशन मुंबई में करवा रखा था और नामकरण वहीं पंडित से करवा लिया था। अब वह आरव था। पर घर पर अभी भी ईशान ही पुकारते थे उसे।
"तो आ गई आखिर तू !! क्या सोचा था कि कभी मिलेगी नहीं !! याद रखना तुझ पर हमेशा मेरा हक रहेगा।"
अचानक मम्मी को किसी संभ्रांत वृद्ध महिला ने पुकारा। वे अपने आप में बेहद प्रभावशाली परिवार से लग रही थी। मम्मी ने उनके पैर छुए और अनुपम, आरूषि और ईशान से भी ऐसा ही करने को कहा।
"ये अनुपम की बड़ी दादी सा है।"उनके आश्चर्य को एक वाक्य से समाप्त कर दिया था उन्होनें।
उन्होंने तीनों के सर पर हाथ रख आशीर्वाद दिया और मां की तरफ़ घूमकर बोली,"चलिए कार में बैठिए सब। रमेश तुम उस कैब का हिसाब करके घर आ जाओ।"उन्होंने अपने ड्राईवर को निर्देश दिए।
फार्चूनर में सभी बैठ गए। ड्राइविंग सीट अनुपम ने संभाल ली। बड़ी दादी और आरूषि ईशान के साथ पीछे थे, मम्मी रास्ता बताने के लिए आगे बैठी थी। सारे रास्ते सब चुप रहे। लगभग डेढ़ घंटे बाद सलूंबर में सभी एक कोठी के सामने पहुंच गए। अमूमन कायस्थों के पास इतनी बड़ी जगह बिरले ही होती है। अनुपम ने प्रश्न सूचक नजरों से अपनी मां की ओर देखा पर मां ने सिर्फ उतरने का ईशारा किया।
"पहले तुम मेरे साथ आओ।"उन्होंने मम्मी को साथ चलने को कहा और नौकरों को बाकी सब को गेस्ट हाउस में ले जाने का आदेश दिया।
"पहले बताएगी, यह सब क्या है और किसी को भी बिना बताए कब किया ?" उन्होंने अपनी बहू से पूछा।मम्मी ने संक्षेप में सब बताया।
"फिर ये कैसी शादी ? कितने दिन की छुट्टी मिली है दोनों को ?"
"तीन दिन और है।"
उन्होंने अपने बेटे और अनुपम के भाईयों को फ़ोन करके तुरंत बुला लिया। आरूषि के ननिहाल में भी खबर भेज दी गई। मम्मी उनके आगे अब कुछ भी बोल नहीं पा रही थी। उनके ख़ुद के पीहरवालों को भी पता चल गया था। घंटे भर में ही सारे लोग इकट्ठे हो गए। आरूषि और अनुपम के नाना नानी अब नहीं रहे थे। पर बाकी परिवार के लिए अपनी बेटियों से मिलना बेहद भावुक कर देने वाला पल था।
आरूषि की मामी ने शिवेंद्र को बुलवा लिया था। वो भी दूसरे दिन आ रहा था। आरूषि और अनुपम के परिवारों ने अपने अपने पुरोहितों को बुलाकर महज डेढ़ दिन में सारे फंक्शन करना तय कर दिया। दोनों कुछ बोल ही नहीं पा रहे थे अपने बड़ों के आगे। वो क्या उनकी मां की भी यही हालत थी। आज वो भी अपने पीहर पक्ष में कई बरसों से जा रही थी। आरूषि के घरवालों ने अपनी बेटी और उसके बच्चे को साथ ले लिया। उससे पूछकर सौम्या और उसके परिवार को भी तुरंत बुला लिया गया।
दोनों राजपूत परिवारों ने अपनी बेटियों का स्वागत और आरूषि के विवाह की रस्में अपनी शान के अनुसार ही रखी थी। वहीं बड़ी दादीजी के परिवार ने भी विवाह उसी अनुसार करने के लिए सहमति दे दी। ईशान के लिए यह सारी भीड़ भाड़ नई थी। कुछ देर में वो भी कंफर्टेबल हो गया अन्य बच्चों के साथ मिलकर।
उधर दोनों परिवार अपनी बेटियों पर इतने वर्षों का सारा प्यार देने में लगे थे वहीं अनुपम का परिवार अपनी दोनों बहुओं का स्वागत अपनी परंपरानुसार करने की तैयारी में जुटा था। तीनों परिवारों के राजनीतिक और प्रशासनिक संबंध बहुत थे तो जमावड़ा भी लगना तय था। पर अब मम्मीजी की चली। उन्होंने इसे तीनों परिवारों तक ही सीमित रखने के लिए मना लिया।
तीनों परिवार अपने रिवाज के अनुसार गणेश जी को न्यौता देकर शाम तक सगाई करवाने के लिए तैयार थे। अपने बड़ों का प्यार और आशीर्वाद अनुपम और आरूषि के लिए बेहद भावुक कर देने वाला था। वे हमेशा अकेले ही रहे थे। यह अनुभव बेहद अलग था। बड़ी दादीजी के बेटे बहू पहले अपनी बहू मम्मीजी को विदा करवा लाए थे।
राजपूती परंपरानुसार आरूषि के भाई को सगाई लानी थी। शिवेंद्र इकलौते ही थे। किसी तरह शाम को वह एअरपोर्ट पहुंचे और वहीं से सारा परिवार सगाई को चला गया। मम्मी का पीहर पक्ष भी मम्मी की इच्छानुसार आरूषि के परिवार के साथ सम्मिलित था।
अनुपम और आरूषि को रात को मेंहदी लगवाना तय था। सुबह लगन और रात के फेरे थे। सौम्या का परिवार भी रात को पहुंच गया। आरूषि की बहन की कमी पूरी हो गई और सौम्या को भी उसके मामा के परिवार ने अपने जैसा ही प्यार दिया। ऐसा प्यार और सम्मान पाकर सौम्या के माता पिता अभिभूत थे।
पर अब शिवेंद्र और सौम्या के बीच पुरानी मुलाकात के कारण नौंक झौंक चल पड़ी जो हर पल बढ़ती ही जा रही थी। दोनों ही कम नहीं थे। सुबह ही सभी फंक्शन फिर चल पड़े। ऐसा लग रहा था मानों आपात स्थिति हो। पर अपनी रौनक सारे फंक्शन में बिखरी थी। रात तक फेरे आरूषि के ननिहाल में पूरे हुए और सुबह 4 बजे विदाई। आरूषि अपनों के प्यार के वशीभूत बहुत रोई वैसे भी रोने में उसे मास्टरी हासिल थी। शिवेंद्र अपनी बहन से लिपटकर भावुक था। बड़ी मुश्किल से और उससे हमेशा संपर्क में रहने के वादे पर उसने अपनी बहन को विदा किया। सौम्या भी इस अकडू राजपूत का यह रूप देखकर अचंभित थी।
अनुपम के परिवार में कोई बेटी नहीं थी तो सौम्या ही ननद बनाई गई सारे रिवाजों को निभाने के लिए। अतः वह भी आरूषि के साथ अनुपम के घर आई थी। अनुपम की मां भी अपने ससुराल का यह रूप देखकर खुशी से रो रही थी। क्या नजारा था !!! रस्में एक बहू की थी और रो दो रही थी !!!
दादी की प्यार भरी डांट सुनकर अनुपम की मां चुप हो गई और अपनी बहू के स्वागत की सभी रस्में निभाई। वे इस घर में सम्मान नहीं पा सकी थी पर इस परिवार ने आज वह सारा प्यार लुटा दिया था।
अनुपम और आरूषि आज सच में विवाहित अनुभव कर रहे थे। दोनों बेहद थक गए थे तो सारी रस्में निभाने के बाद सुला दिए गए। सौम्या को भी सुला दिया गया था।
दादी का परिवार साथ बैठा था अपनी सबसे लायक बहू यानि मम्मी जी, जो कि उस घर में बड़ी भी थी, पर प्यार बरसाया जा रहा था। वैसे भी उनका परिवार ही पुराने समय में इस परिवार का संरक्षक था तो उनका रुतबा था।
दोपहर 3 बजे विदाई की रस्म कराने शिवेंद्र आया था। तभी सौम्या भी उठकर बाहर आई और उससे टकरा गई। दोनों में फिर नौंक झौंक शुरू हो गई। कुछ देर तक सहन करने के बाद दादी बोल पड़ी "लगता है एक और शादी की तैयारी आज ही करनी पड़ेगी !!"
दोनों बेहद शर्मिंदा हो गए। सौम्या अंदर भाग गई और शिवेंद्र चुपचाप अपनी बहन को विदा करा ले गया।
रात तक अनुपम वापस अपने भाइयों के साथ जाकर विदा करा लाया। अगली सुबह रसोई और ईशान के नामकरण संस्कार तय थे।
दोनों की सुहागरात होनी थी पर अनुपम चोरी से ईशान को उठा लाया और दोनों के बीच सुला लिया। आरूषि अनुपम के इस कदम से बहुत प्रभावित हुई। आखिर 5 वर्षों में कुछ समय छोड़कर वह अपने बच्चे से दूर ही रही थी।
सुबह दोनों ही सबसे पहले उठ गए। अनुपम ईशान को वापस उसकी जगह सुला आया। उसकी दोनों भाभियां भी उठ गई थी और आरूषि की मदद करने लगी। आरूषि ने अपनी आदत के अनुसार अपने इष्टदेव की आराधना की और इन सारी खुशियों के लिए उनका धन्यवाद दिया। उसने भोग में मूंग की दाल का हलवा बना दिया था। 5 बजे तक सभी उठ गए थे। आज अनोखा दिन था सास बहू दोनों की इस घर में पहली रसोई थी तो आज घर का वातावरण महक रहा था। जहां आरूषि ने पूर्वांचल के पकवान बनाए थे वहीं उसकी सास ने खास मेवाड़ी ठाठ की रसोई !!
9 बजे पंडितजी ने रस्मों रिवाज से ईशान का विधिवत् आरव नामकरण कर दिया। अब मेहमानों की विदाई शाम को होनी थी। आपसी प्रेम और दादी के कदम ने पुराने रिश्ते जोड़ दिए थे। पर अनुपम के परिवार ने उन दोनों को एक और दिन रोक लिया।
सौम्या और शिवेन्द्र दोपहर में ही चले गए। दोनों को ही अपने काम में जुटना था। किस्मत से दोनों की एक ही फ्लाइट दिल्ली और वहां से लखनऊ की थी। सीट्स भी साथ साथ ही मिली थी। शिवेंद्र बिल्कुल बदला हुआ था। आज उसका केयरिंग रूप सौम्या के सामने था। पूरे समय वह जरूरत जितना ही बोला और सौम्या को घर छोड़कर अपने गंतव्य को शालीनता के साथ चला गया। सौम्या सारे घटनाक्रम से अचंभित थी। शिवेंद्र के इस रूप ने उसे बहुत प्रभावित किया।
अनुपम आरूषि की इच्छानुसार नाथद्वारा आ गया। रात की शयन आरती में भाग लिया और वहीं रुक गया। दोनों आज कई वर्षों बाद फिर से अकेले साथ थे।
Arman Ansari
26-Dec-2021 06:11 PM
Kya kahani puri ho gyi sr ya age or h kuch liya hi nhi jari h esa kuch ku
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Ajay
26-Dec-2021 06:21 PM
यह जो खुशियों की बाढ़ आई है। आरूषि के जीवन में अकल्पित घटनाओं के घटने की ओर इशारा है। हां मुझे कहीं भी कहानी बेवजह खिंचती लगती है तो एडिट कर देता हूं।🙏🏻🙏🏻
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Arman Ansari
27-Dec-2021 11:49 AM
Ye bhi shi h
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🤫
26-Dec-2021 04:05 PM
काफी जल्दी में लिखा ये भाग आपने ऐसा लगा, शुरुआत के पार्ट जैसे बंधे हुए थे लेकिन ये भाग पूरा जल्दबाजी वाला लगा।
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Ajay
26-Dec-2021 06:18 PM
शायद आपका इशारा रस्मों के निभाए जाने में की गई जल्दबाजी की ओर है। यहां दोनों किसी अन्य कार्य से पहुंचे थे और परिजन मिलने के बाद उनकी शादी को अपने अनुसार करवा रहे थे। उनके बिजी शेड्यूल से यही कुछ संभव था फिर भी आप कुछ और सप्ष्ट करेंगी तो अगले भागों में प्रयास करूंगा 🙏🏻🙏🏻
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